Book Title: Syadwad Bodhini
Author(s): Jinottamvijay Gani
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti

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Page 212
________________ स्याद्वादबोधिनी-१६१ होता है, अतः पुनः संसार में परिभ्रमण नहीं करता, किन्तु यदि परिमित-जीववाद स्वीकार करते हैं तो दो प्रकार के दोष उपस्थित होते हैं। यदि सामान्यतः प्रतिवर्ष एक जीव (आत्मा) की मुक्ति स्वीकार की जाये तो भी संसार की स्थिति सम्भव है। वस्तुतः सर्वज्ञ विभु श्रीजिनेन्द्र भाषित जैनधर्म के अनुसार तो प्रत्येक छह मास पाठ समय में छह सौ आठ जीव मोक्ष जाते हैं। (१) परिमित जीववाद के पक्ष में तो संसार, जीवों से एक दिन खाली हो जायेगा। (२) दूसरा दोष यह है कि, मुक्तात्मा का कर्म रहित होने के कारण संसार में जन्म नहीं होता, क्योंकि कारण के अभाव में कार्योत्पत्ति सम्भव नहीं है। संसार में उत्पत्ति का कारण कर्मबन्धन है। कर्मबन्धन ही संसारबन्धन है। कर्मबन्धन न होने पर भी परिमित जीववादियों के मत में मुक्तात्माओं को भी संसार की व्यवस्था बनाये रखने के लिए संसार में जन्म ग्रहण करना होगा, जबकि यह नियम विरुद्ध है। श्रीपतञ्जलि, व्यास, अक्षपाद आदि की भी यही मान्यता है कि प्रात्मा कर्मों का सर्वथा क्षय होने पर संसार में पुनः जन्म नहीं लेता है। किन्तु प्राजीवक, मस्करी (गोशाल) तथा स्वामी दयानन्द आदि

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