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स्याद्वादबोधिनी-६०
नाद्यः सिद्धसाधनात् । द्वितीयस्तु ज्ञानस्य प्रमेयाकारानुकरणाज्जडत्वापत्त्यादि दोषाघ्रातः । तन्न प्रमाणादेकान्तेन फलस्याभेदः साधीयान् । सर्वथा तादात्म्ये हि प्रमाणफलयोन व्यवस्था तद्भावविरोधात् । न हि सारूप्यमस्य प्रमाणमधिगतिः फलमिति सर्वथा तादात्म्ये सिद्धयति, अतिप्रसङ्गात् । एवं सुगतेन्द्रजालं विशीर्णम् ।। १६ ।।
स्तुतिकार कलिकालसर्वज्ञ प्राचार्यप्रवर श्रीमद् हेमचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज श्री सम्प्रति प्रमाण से प्रमाणफल (प्रमिति को) सर्वथा अभिन्न मानने वाले तथा बाह्य पदार्थों का निषेध करके ज्ञानात को स्वीकार करने वाले बौद्धों का उपहासपूर्वक खण्डन करते हुए कहते हैं कि-'न तुल्यकाल इति'।
- भाषानुवाद - * श्लोकार्थ-हेतु और हेतु का फल ये दोनों साथ नहीं रह सकते हैं मोर हेतु का विनाश हो जाने पर फल की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। यदि विश्व-जगत् को विज्ञान रूप माना जाये तो पदार्थों का ज्ञान नहीं हो सकता।
9 भावार्थ-अतएव बुद्ध मत का इन्द्रजाल बिखर जाता है। बौद्ध मत तत्त्वार्थ-तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है।