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स्याद्वादबोधिनी-८४
तस्मान्न बध्यते नापि मुच्यते, नापि संसरति कश्चित् । संसरति बध्यते मुच्यते च, नानाश्रया प्रकृतिः ॥
सांख्य मत में उक्त वणित पच्चीस तत्त्व (सांख्यकारिका-६२) क्रमशः इस प्रकार हैं
१. अव्यक्त (मूल प्रकृति), २. महत् (बुद्धिः), ३. अहंकार, ४. शब्दतन्मात्रा, ५. स्पर्शतन्मात्रा, ६. रूपतन्मात्रा, ७. रसतन्मात्रा, ८. गन्धतन्मात्रा, ६. घ्राण, १०. रसना, ११. चक्षुः, १२. त्वक्, १३. श्रोत्र (पंच ज्ञानेन्द्रियाँ), १४. वाक् (वाणी), १५. पाणि (हाथ), १६. पाद (पैर), १७. पायु (गुदा), १८. उपस्थ (लिङ्ग), पंचकर्मेन्द्रियाँ, १६. मन, २०. आकाश, २१. वायु, २२. तेज, २३. जल, २४. पृथ्वी, २५. पुरुष ।
इस प्रकार सांख्यदर्शन के विश्व-जगन्निर्माण की जड़ परिकल्पना है। उसकी मान्यता के अनुसार पुरुष सर्वथा शुद्ध अकर्ता, निर्लेप है। बुद्धि प्रकृति की विकृति है, वही पदार्थ-ज्ञान रखती है। अचेतन, बुद्धि में चेतन पुरुष का प्रतिबिम्ब पड़ने के कारण वह अपने को (पुरुष) बुद्धि से अभिन्न समझता है 'मैं सुखी हूँ', 'मैं दुःखी हूँ' ऐसी अनुभूति करता है। यही पुरुष का भोग है। वस्तुतः