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स्याद्वादबोधिनी-७३ (द्वैतवाद की सिद्धि) होती है। ऐसी स्थिति अद्वैतवाद के सिद्धान्त को क्षति पहुँचाती है। माया के सन्दर्भ में शंका होती है कि यह सत् है या असत् ? यदि यह सत् है तो द्वैतवाद सिद्ध होता है-अद्वैतवाद अखण्डित होता है । यदि असत् है तो वह अभावरूप है। प्रभाव को वस्तुरूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। संसार में सद् तथा असद् के अलावा कोई तीसरा तत्त्व प्राप्त नहीं होता है। जैसे जो माता है वह वन्ध्या नहीं है। जो वन्ध्या है वह माता नहीं है। अतः माया में असत्रूपता के साथ अर्थक्रियाकारिता नहीं हो सकती। सद् और असद् से पृथक् अनिर्वचनीय स्थिति भी सम्भव नहीं है क्योंकि संसार में सत् एवं असत् के अतिरिक्त किसी तत्त्व की स्थिति नहीं है। अतः 'सदसद्भ्यां अनिर्वचनीया' कथन भी समीचीन नहीं है। प्रागम से भी अद्वैत की सिद्धि नहीं होती है। प्राप्त मीमांसा में कहा है-'लौकिक और वैदिक अथवा शुभ और अशुभ अथवा पुण्य और पाप रूपी कर्मद्वत, प्रशस्त और अप्रशस्त रूप फलद्वंत, इह लोक और परलोक रूप लोकद्वैत, विद्या और अविद्या तथा बंध और मोक्ष का प्रभाव हो जायेगा।'
अतः प्रागम प्रमाण से भी अद्वत ब्रह्म की सिद्धि सम्भव नहीं है ।। १३ ।।