________________
स्याद्वादबोधिनी-६३
* श्लोकार्थ-वेदोक्त होने पर भी हिंसा कदापि पुण्य का कारण नहीं होती। दूसरे कार्य के लिए प्रयुक्त उत्सर्गवाक्य उस कार्य से भिन्न कार्य के लिए प्रयुक्त वाक्य के द्वारा अपवादक नहीं बनाया जा सकता। मीमांसामतानुयायियों का यह प्रयास अपने पुत्र को स्वयं मार कर राज्य प्राप्त करने की अभिलाषा के समान है।
9 भावार्थ-मीमांसकों द्वारा जो यह भ्रामक वार्ता प्रचारित की गई है कि, वेदोक्त हिंसा, हिंसा नहीं होती है। वह किसी प्रकार भी सत्य के धरातल पर नहीं टिक पाती है। 'मा हिंस्यात् सर्वभूतानि' किसी भी प्राणी की किसी प्रकार से हिंसा नहीं करनी चाहिए । इस प्रकार के वेदोक्त उत्सर्ग-सन्देश के पश्चात् पञ्चपञ्च नरवाः भक्ष्याः' 'अग्निषोमीयं पशुमालमेत' इत्यादि अपवाद विधि का उपस्थापन उत्सर्गपक्ष के सिद्धान्त को महती क्षति पहुँचाता है। 'वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति' कहकर इसका समाधान प्रस्तुत करना कदापि समुचित एवं न्यायसंगत नहीं हो सकता, क्योंकि हिंसा का, वह भी पुण्यकर्म में पूजा आदि के लिए अपवाद विधि द्वारा उपस्थापन करना कैसे न्याय संगत हो सकता है ? पुण्य (धर्म) के कार्य में हिंसा का अपवादात्मक विधान