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स्याद्वादबोधिनी-६७
प्रत्यभिज्ञानात्मके ज्ञाने प्रत्यक्षं स्मरणमुभयं समकालमेव भवति, न तु कालान्तरमपेक्षते । तस्माद् विरोधलवोऽपि नास्ति ।
'ज्ञानं स्वान्य प्रकाश्यम् ईश्वरज्ञानान्यत्वे सति प्रमेयत्वात् घटवत्' इति न्यायमतमपि विभावनीयम् ॥
ज्ञान को प्रत्यक्ष न मानकर नित्य-परोक्ष स्वीकार करने वाले कुमारिलभट्ट मीमांसक आदि के प्रति कहते हैं
* श्लोकार्थ - ज्ञान अपने को तथा दूसरे पदार्थों को जानने में समर्थ है ही । यदि वह स्व-स्वरूप- प्रकाशक न हो तो पदार्थ सम्बन्धी कथन स्पष्ट नहीं हो सकता । तथापि ज्ञान के स्वप्रकाशक होने पर भी पूर्वपक्षवादियों के भय से अन्य लोग ज्ञान को आत्मनिष्ठ स्वीकार नहीं करते हैं ।
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भावार्थ- 'बुध् अवगमने ' धातु से 'करणाधिकरणयोसे घञ् प्रत्यय, गुण करने पर 'बोध' शब्द की निष्पत्ति होती है । अपने को प्रगट करने में सक्षम ही पर वस्तु को प्रकाशित करने में समर्थ होता है; जैसे- दीपक अपने को प्रकाशित करके पदार्थान्तर को भी प्रकाशित