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स्याद्वादबोधिनी-६८
करता है। यदि ज्ञान को प्रकाशित करने के लिए ज्ञानान्तर की अपेक्षा स्वीकार की जाये तो क्रमशः अन्य को अन्य की अपेक्षा होने से अनवस्था नामक दोष होता है । ___कुमारिल भट्ट तो सभी ज्ञान को परोक्ष स्वीकार करते हैं। स्वार्थ प्रकाशन में समस्त ज्ञान परोक्ष है । परोक्ष ज्ञान में ज्ञानान्तर की अपेक्षा होती है। यह ज्ञातव्य है कि तुरन्त उगता हुअा अंकुर फल प्रदान नहीं करता है । अनुकूल जलवायु प्राप्त करने के पश्चात् उसमें कालसापेक्ष्य फल-प्रदायकता प्रकट होती है। ठीक इसी प्रकार प्रकाशकता का प्राकट्य भी ज्ञानान्तर के द्वारा समुद्भूत होता है । ऐसा होने पर अनवस्था रूपी नदी को पार करना कठिन हो जायेगा। इसका निराकरण करते हुए सयुक्ति प्राचार्य कहते हैं-एक ही समय में अन्य क्रिया के विद्यमान होने पर भी किसी प्रकार का कोई विरोध नहीं है ।
जैन परिणामवादी हैं। लोभी व्यक्ति दूसरे की विस्मृत या पतित वस्तु को देखकर जिस समय परिणमन करता है, उसी समय उसे ग्रहण करता है; अन्य काल की वहाँ अपेक्षा नहीं रहती। कुण्डली न्याय में साँप अपने आप अपने को बाँधता है, ऐसे वाक्य में कर्तृत्व कर्मत्व उभय की स्थिति ‘एककालावच्छेदेन किल वर्तमान' रहती है ।