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स्याद्वादबोधिनी - ६६
कालान्तर
अतः हम मानते हैं कि, प्रत्यभिज्ञात्मक ज्ञान में भी प्रत्यक्ष, स्मरण, उभय स्थिति समकाल ही होती है । की वहाँ अपेक्षा नहीं रहती । अतः विरोध की सम्भावना नहीं है ।
न्यायदर्शन एवं वैशेषिकदर्शन की मान्यता है कि ज्ञान स्वविदित नहीं होता, वह अनुव्यवसायगम्य है । 'अयं घट:' इस व्यवसायरूप ज्ञान के पश्चात् यह मानस ज्ञान होता है कि मैं इस घट को घट रूप से जानता हूँ । इस अनुव्यवसायरूप ज्ञान से ही पदार्थों का ज्ञान होता है । अतएव 'ज्ञान दूसरे से प्रकाशित होता है, क्योंकि वह . ईश्वरज्ञान से भिन्न होकर प्रमेय है, घट की तरह । तथा ज्ञान को दूसरे से प्रकाशित मानने में अनवस्था दोष नहीं आता, क्योंकि पदार्थ को जानने मात्र से ही प्रमाता का प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है ।
श्री जैनदर्शन की मान्यता के अनुसार उक्त अनुमान बाधित है, क्योंकि ज्ञान को स्वसंवेदक मानना चाहिए । 'विवादाध्यासितं ज्ञानं स्वसंवेदितम्, ज्ञानत्वात् ईश्वरज्ञानवत्' । यह अनुमान व्यर्थं विशेष्य भी है, क्योंकि 'ईश्वरज्ञानान्यत्वं' हेतु के विशेष्य प्रमेयत्व हेतु के कहने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है । उक्त हेतु प्रयोजक