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स्याद्वादबोधिनी-६४ उत्सर्ग विधि का उपहास मात्र है ? अर्थात् इससे उत्सर्ग विधि का औचित्य सर्वथा विनष्ट हो जाता है। साथ ही उस पर प्रश्नचिह्न भी लगता है कि यदि पूजापद्धति में हिंसा, पापजनकतावच्छेदिका नहीं होती तो सामान्य कार्यों में हिंसा पाप का कारक कैसे हो सकती है । यद्यपि उत्सर्ग एवं अपवाद विधि को जैन भी स्वीकार करते हैं। 'उत्सर्गावच्छेदकावाच्छिन्ने विधौ अपवाद विषयातिरिक्त न संकोचः क्रियते' ।' अर्थात्-उत्सर्गविधि में अपबाद विधि के द्वारा कुछ सोमाङ्कन किया जाता है । अतः अपवादविधि को छोड़कर ही उत्सर्ग विधि की प्रवृत्ति होती है। तथापि वैदिकी हिंसा के सन्दर्भ में इसे स्वीकार करना न्यायसंगत नहीं है ।।
यह बात पूर्व में स्पष्ट की जा चुकी है, किन्तु यदि कोई फिर भी दृढ़तापूर्वक वैदिकी हिंसा को समुचित ठहराने का प्रयत्न करता हो तो अपने पुत्र को स्वयं मारकर राजा बनने की अभिलाषा वाले मूर्ख व्यक्ति के समान उसकी भो उक्ति एवं कोशिश निस्सार है, निर्मूल है ।
___ मन्दिर निर्माण एवं पूजन इत्यादि में पुष्प, जलप्रयोग जन्य एकेन्द्रिय आदि के घात से होने वाली हिसा के साथ नृशंसतापूर्वक यज्ञ में कृत पशुवध (हिंसा) की तुलना करना बुद्धि का दिवालियापन ही है ।। ११ ।।