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स्याद्वादबोधिनी-५६ उत्कृष्टता से ही मुक्ति-मोक्ष सम्भव है। मात्र ज्ञान से मुक्ति-मोक्ष सम्भव नहीं है। संस्कृत साहित्य में कहा भी है
'ज्ञानं भारं क्रियां विना' क्रिया के बिना, आचरण के बिना ज्ञान भार स्वरूप है। वाद-वितण्डा, छल, जाति, निग्रहस्थान दूसरों को प्रवंचित करने (ठगने) के लिए ही हैं। अतः इन्हें तत्त्व कहना समीचीन नहीं है। इनसे मुक्ति-मोक्ष सम्भव नहीं है।
ध्यातव्य है कि-श्रीतत्त्वार्थसूत्र में विवाद को भी श्रीतत्त्वार्थाधिगम का हेतु स्वीकार किया गया है । सामान्यतया प्रचलित भी है-'वादे वादे, जायते तत्त्वबोधः।'
वादी दो प्रकार के होते हैं-जिज्ञासु और निर्णता । ये दोनों ही साधक-बाधक प्रमाणों की सहायता से अनुपयुक्त मत का खण्डन तथा सत् का समर्थन करते हैं । वादी तथा प्रतिवादी दोनों के द्वारा निर्णीत विषय ही निर्दोष सिद्धान्त के रूप में प्रतिष्ठित होता है। अन्यथा शब्दप्रयोग का शास्त्रीय प्रयोजन ही क्या होगा ? पागम भी यदि सन्देह की निवृत्ति करने में समर्थ न हों तो उनकी क्या उपयोगिता ?