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स्याद्वादबोधिनी-५७
नहि तत्त्वज्ञानिना मूकेन भाव्यम् । जिज्ञासव एव विवदन्ते न मूकाः। शब्दप्रयोगस्य किं प्रयोजनम् ? परोपदेशाय । आगमानां का उपयोगिता ? यदि सन्देहो न निराक्रियते । अतः परोत्कर्षहानिमपहाय तत्त्वार्थनिर्णयार्थं विवादादयो विधेया न तु हेया इत्यपि सुधियो विभावयन्त्विति सुशीलसूरयः ।
वैशेषिकदर्शन एवं न्यायदर्शन के सिद्धान्त प्रायः समान हैं।
अतः वैशेषिक मत खण्डन से ही न्यायदर्शन मत का खण्डन भी समझना चाहिए। अक्षपाद द्वारा प्रतिपादित समाप्त पदार्थ मोक्ष-साधक नहीं हैं, तथा उसके सिद्धान्तों में पर मत खण्डन के लिए अपनाये गये छल, जाति, निग्रहस्थान पदार्थ सर्वथा अग्राह्य हैं, त्याज्य हैं।
अक्षपाद के वैराग्य का उपहास करते हुए कलिकाल सर्वज्ञ श्रीहेम चन्द्राचार्यश्री ने कहा है
- भाषानुवाद - * श्लोकार्थ-यह आश्चर्य की बात है कि स्वयं विवादरूपी पिशाच से निगृहीत, वितण्डा रूप पाण्डित्य से मुख-खर्जन-समन्वित, छल, जाति, निग्रह आदि के उपदेश