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स्याद्वादबोधिनी-५८
से दूसरों के निर्दोष हेतुओं का खण्डन करने वाले अक्षपाद भी वीतराग मुनि समझे जाते हैं। वस्तुतः वे रागरंजित हैं।
समस्त दार्शनिकों ने स्वीकार किया है कि-पदार्थसार्थ-ज्ञान से तत्त्वार्थाधिगम होता है। तत्त्वार्थ के अधिगम से राग-द्वोष आदि की निवृत्ति होती है। जहाँ-जहाँ रागनिवृत्ति होती है मुक्ति की स्थिति वहीं प्रोद्भासित होती है। जो स्वयं रागादि संवलित हो और छल, जाति, वितण्डा इत्यादि पदार्थों के द्वारा मुक्ति की साध्यता का उपदेश देता हो, वह भी भोले-भाले लोगों को मात्र वाग् जाल से ठगने का उपक्रम करता है। उन्हें पथभ्रष्ट करता है। वह स्वयं विनष्ट होकर दूसरों को विनष्ट करने का प्रयास करता है। ऐसा व्यक्ति वीतराग परमार्थी मुनि नहीं हो सकता, अपितु रागलिप्त हो है।
आचार्यश्री का तात्पर्य यह है कि, नैयायिक सोलह पदार्थ स्वीकार करते हैं, जिनमें वितण्डा, छल, जाति, निग्रहस्थान आदि का उल्लेख है, जो कि सर्वथा त्याज्य है। वे इनके ज्ञान से मुक्ति-मोक्ष स्वीकार करते हैं। जबकि 'ज्ञान-क्रियाभ्यां मोक्षः' ज्ञान और क्रिया की