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स्याद्वादबोधिनी-६० श्री जैन सिद्धान्त-पागम सूत्रों में स्थान-स्थान पर वाद शक्ति द्वारा उत्थापित विविध पक्षों का सर्वज्ञ-श्रमण भगवान श्री महावीर परमात्मा द्वारा समीचीन तात्विक समाधान प्रस्तुत किया गया है। अतः वाद की सर्वथा उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए, क्योंकि ऐसा करना तत्त्वनिर्णय में गतिरोध उत्पन्न करता है । श्रुतकेवली श्रीगौतम स्वामी गणधर महाराज की शङ्कात्रों का समाधान श्री पागम सूत्रों में इसी शैली में वरिणत है। हाँ, यह सत्य है कि, दूसरों के उत्कर्ष को कोई हानि पहुँचाने के उद्देश्य से नहीं, अपितु तत्त्वार्थ जिज्ञासावृत्ति से किया गया विवाद भी श्रेयस्कर है। जिज्ञासु ही वाद को बढ़ावा देते हैं, मूक नहीं। यह मेरा (विजय सुशील सूरि का) विनम्र निवेदन है कि श्री जैन विद्वान् पण्डित इस सन्दर्भ में विमर्श करें ।। १० ॥
अधुना मीमांसक-भेदाभिमतं वेदविहितहिंसायाः धर्महेतुत्वमुपपत्तिपुरःसरं खण्डयन्नाह
[ ११ ] 卐 मूल श्लोकःन धर्म-हेतुविहिताऽपि हिंसा ,
नोत्सृष्टमन्यार्थमपोद्यते च । स्वपुत्रघाताद् नृपतित्वलिप्सा ,
सब्रह्मचारि स्फुरितं परेषाम् ॥ ११ ॥