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स्याद्वादबोधिनी-४६
- भाषानुवाद - * श्लोकार्थ-समस्त सत् पदार्थों में सत्ता नहीं होती। ज्ञान, उपाधिजन्य है। अतः ज्ञान प्रात्मा से भिन्न है । मोक्ष, ज्ञानरूप एवं प्रानन्दरूप नहीं है। इस प्रकार की सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि रखने वाले वैशेषिक दर्शन के शास्त्र, हे वीतराग विभो! आपके आज्ञाक्षेत्र में रहकर नहीं रचे गये हैं।
9 भावार्थ-सत् की भाववाचकस्थिति 'सत्ता' व्याकरण द्वारा निष्पादित की जाती है। यह सत्ता श्रीजैनदर्शन-जैनमत में सर्वत्र होती है। सब पदार्थ द्रव्य की अपेक्षा सद्रूप हैं। वैशेषिक-न्यायदर्शन के सिद्धान्तानुसार सत्ता के दो प्रकार हैं-'परा' तथा 'अपरा' ।
सत्ता, द्रव्य, गुण, कर्म में विद्यमान रहती है, सामान्य, विशेष और समवाय में नहीं। वैशेषिक मान्यता के अनुसार द्रव्य, गुण, कर्म तीन पदार्थों में ही सत्ता रहती है; क्योंकि इन तीनो में ही 'सत्' है। यद्यपि द्रव्य आदि षट्पदार्थों में 'अस्तित्व' विद्यमान है तथापि वह सामान्य
आदि तीन में सामान्यज्ञान का कारण नहीं है। तथा द्रव्य, गुण, कर्म में है अतः द्रव्यादि पदार्थों में ही सत्ता