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स्याद्वादबोधिनी - ४७
विद्यमान रहती है । यदि सामान्य, विशेष और समवाय में 'सत्ता' स्वीकार की जाए तो अनवस्था, रूपहानि और असम्बन्ध नामक दोष उपस्थित हो जाते हैं । अतः 'सत्ता' सामान्य, विशेष और समवाय में स्वीकार न करके मात्र द्रव्य, गुण, कर्म में ही स्वीकार करनी चाहिए ।
सत्ता द्रव्य
सत्ता द्रव्य, गुण और कर्म से भिन्न है । से भिन्न है । जो द्रव्यों से उत्पन्न न हुआ हो या द्रव्यों का उत्पादक न हो तथा जो अनेक द्रव्यों से उत्पन्न हुआ हो अथवा अनेक द्रव्यों का उत्पादक हो उसे द्रव्य कहते हैं । 'सत्ता' में द्रव्य का यह लक्षरण घटित नहीं होता है । सत्ता द्रव्यत्व की तरह प्रत्येक द्रव्य में रहती है अतः सत्ता द्रव्य नहीं है । सत्ता गुण से भी भिन्न है, क्योंकि 'सत्ता' गुणत्व की तरह गुणों में रहती है तथा गुण, गुणों में नहीं रहते ( 'निर्गुणत्वाद् गुणानाम्') । भी भिन्न है, क्योंकि वह कर्मत्व की तरह तथा कर्म कर्म में नहीं रहते ।
सत्ता, कर्म से
कर्म में रहती है
यदि सत्ता को द्रव्य, गुण और कर्म से भिन्न स्वीकार किया जाये तो द्रव्यादि को 'असत्' स्वीकार करना पड़ेगा, जबकि द्रव्यादि की सत्ता स्वयंसिद्ध है । अतः सत्ता को द्रव्यादि से भिन्न मानना न्यायसंगत नहीं है ।