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स्याद्वादबोधिनी-४८
है ।
वैशेषिक मान्यता के अनुसार ज्ञान, श्रात्मा से भिन्न उन्होंने लक्षण भी किया है - 'ज्ञानाधिकरणमात्मा' ज्ञान समवाय सम्बन्ध से आत्मा में विद्यमान रहता है । मुक्ति की दशा में ज्ञानात्मक उपाधि का भी उच्छेद हो जाता है । ऐसी स्थिति में आत्मा की जड़त्वापत्ति हो जाती है ।
श्री जैनदर्शनानुसार तत्त्वार्थ कथन इस प्रकार है कि यदि आत्मा और ज्ञान को सर्वथा पृथक् माना जाये तो अपने ज्ञान से अपनी श्रात्मा का ज्ञान सम्भव नहीं होगा । वैशेषिकों के मत में आत्मा व्यापक है । अतः एक आत्मा में ज्ञान होने से समस्त आत्मानों को पदार्थ ज्ञान होना चाहिए | वैशेषिक दर्शन ने जो आत्मा और ज्ञान का समवाय सम्बन्ध स्वीकार किया है, वह भी सम्भव नहीं है । आत्मा और ज्ञान में कर्त्ता और कारण सम्बन्ध स्वीकार कर दोनों को पृथक् मानना भी न्यायसंगत नहीं है । वस्तुतः आत्मा और ज्ञान पृथक् नहीं हो सकते । जैसे - 'सर्प: आत्मना आत्मानं वेष्टते' सर्प स्वयं को स्वयं के द्वारा वेष्टित करता है । इस स्थिति में कर्त्ता और कारण पृथक् नहीं हैं । अतः आत्मा और ज्ञान पृथक-पृथक् नहीं हो सकते। चैतन्यको वैशेषिकों ने भी श्रात्मा का स्वरूप माना है । वृक्ष का स्वरूप वृक्ष से भिन्न नहीं हो सकता ।