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स्याद्वादबोधिनी - ४६
अतः चैतन्य आत्मा से भिन्न नहीं हो सकता । ज्ञान और आत्मा को भिन्न स्वीकार करने पर 'मैं ज्ञानी हूँ' ऐसा ज्ञान नहीं हो सकता । अतः आत्मा और ज्ञान भिन्न नहीं हैं, अपितु प्रात्मा ज्ञानरूप है ।
वैशेषिकों के अनुसार मुक्ति ज्ञान एवं प्रानन्द शून्य है । वे मुक्तावस्था में ज्ञान का विनाश भी स्वीकार करते हैं। श्री जैनदर्शन जैनमत के अनुसार ऐसी मुक्ति के लिए कोई कोशिश - प्रयत्न नहीं करेगा । श्री जैनमत के अनुसार मुक्ति ज्ञानमयी एवं प्रानन्दमयी हैं' ॥ ८ ॥
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अथ ते वादिनः संवेद्यमानमपलप्य तादृश कुशास्त्र-शस्त्र सम्पर्कविनष्ट-दृष्टयः तस्य विभुत्वं मन्यन्ते । अत उपालम्भमाह -
फ मूलश्लोक:
कायप्रमाणत्वमात्मनः स्वयं
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यत्रैव यो दृष्टगुणः स तत्र कुम्भादिवद् निष्प्रतिपक्षमेतत् ।
तथापि देहाद् बहिरात्मतत्त्वमतत्त्ववादोपहताः
पठन्ति ॥ ६ ॥