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स्याद्वादबोधिनी-४२
रहता है। श्री जैनदार्शनिक इसे स्वीकार नहीं करते हैं, क्योंकि स्वरूपियों का सम्बन्ध होता है, विरूपवालों का नहीं। समवाय सम्बन्ध की एकता तथा नित्यता युक्तिसंगत नहीं है। जैसे-वैशेषिक दर्शनानुसार आकाश नित्य तथा एक होता हुअा व्याप्त है, उस प्रकार समवाय की प्रतीति नहीं होती। जैसे-पूर्वपक्षी व्याप्ति सदोष है, वैसे ही सारी परिकल्पना सदोष है ।
यदि कहें कि, एक समवाय को मुख्यतया तथा समवाय में समवायत्व को गौण मानकर निर्वाह करेंगे तो भी यह कपोल कल्पना व्यावहारिक धरातल पर खरी नहीं उतरती है। अतः लोकविरोध आता है।
समवाय सम्बन्ध के सन्दर्भ में वैशेषिकों के प्रति श्रीजैनदर्शन-जैनमत का कथन है कि जिस प्रकार दो पाषाण खण्डों को जोड़ने के लिए कोई स्निग्ध पदार्थ (प्राचीन काल में लाख आदि तथा वर्तमान विकफिक्स इत्यादि अनेक वज्रलेप) प्रत्यक्ष ज्ञानगम्य होता है; उसी प्रकार धर्म-धर्मी को जोड़ने वाला 'समवाय' प्रत्यक्षगम्य नहीं होता है। अतः समवाय, प्रत्यक्षज्ञान से बाधित है। समवाय की एकता, नित्यता तथा सर्वव्यापकता भी सम्भव नहीं है, क्योंकि एक पदार्थ में