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स्याद्वादबोधिनी-६ स्तवाय स्पृहयालुरित्यत्र 'स्पृहेरीप्सितः' इति सूत्रेण चतुर्थी न तु तादर्थ्ये । तादर्थ्य चतुर्थी तु यत्र प्रकृतिविकृतिभावस्तत्र सा विधीयते । यथा-यूपाय दारु, कुण्डलाय सुवर्णमित्यादि ।
-भाषानुवाद* स्तुतिकार आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरीश्वर जी महाराज त्रिलोकीनाथ श्रीमहावीर स्वामी भगवान के समस्त गुणों के प्रति श्रद्धाभाव रखते हुए भी उनके यथार्थवादिता नामक गुण का ही वर्णन प्रस्तुत करते हैं
. * श्लोकार्थ-हे स्वामिन् ! मैं (हेमचन्द्र) आपके अन्य समस्त गुणों के प्रति श्रद्धा रखते हुए अपने आपको परीक्षा करने में पण्डित समझता हुआ, आपके यथार्थवादित्व गुण का ही प्रतिपादन करता हूँ। २ ।।
9 भावार्थ-हे नाथ ! मैं (हेमचन्द्राचार्य) आपका सेवक, आपके यथार्थवादित्व रूप के अलावा भी आपके अनन्त गुणों के प्रति श्रद्धानत हूँ। 'गुणान्तरेभ्यः' पद में मयूरव्यंसकादिगण पाठ के अनुसार समास हुआ है। अर्थात्-आपके अन्य गुणों का संकीर्तन भी मुझे अभीष्ट है। अनन्त गुणों का वर्णन छोड़कर 'यथार्थवादित्व'