________________
स्याद्वादबोधिनी - २६
को यह स्वीकार्य नहीं है । श्रीजैनदर्शन की मान्यता के अनुसार - उत्पाद और व्यय के होते हुए भी पदार्थ के स्वरूप का विनाश नहीं होना ही नित्यत्व है । कूटस्थ नित्यत्व स्वीकार करने पर उत्पत्ति-विनाश की स्थिति होना सम्भव नहीं । अतएव जैनदार्शनिक नित्यत्व को सर्वथा नित्य न मानकर उत्पाद व्यय सहित नित्य प्रर्थात्आपेक्षिक नित्य मानते हैं । द्रव्य की अपेक्षा पदार्थ नित्य है, तथा पर्याय की अपेक्षा नित्य ।
दोनों धर्म साथ रहते
इस तरह द्रव्य में नित्य प्रनित्य हैं । एतद् द्वारा द्रव्य एवं पर्याय की पृथक्ता का प्रभाव होने के कारण द्रव्य को छोड़कर पर्याय तथा पर्याय को छोड़कर द्रव्य की स्थिति कदापि सम्भव नहीं है । द्रव्य की अपेक्षा पदार्थ नित्य तथा पर्याय की अपेक्षा होता है । यही नित्य और अनित्य की सहधर्मिता है । श्रतएव श्राकाश की भी नित्यानित्य स्वरूपात्मकता उक्त रीति से स्वत: सिद्ध है ।
।
अतः
नित्य
वैशेषिकदर्शन के अनुसार अन्धकार तेजस् के प्रभाव रूप है, किन्तु जैनदार्शनिक को यह अभीष्ट नहीं है । तेजस का पर्यायविशेष अन्धकार है, क्योंकि - अन्धकार का इन्द्रिय से होता है ।
प्रत्यक्ष भी प्रकाश की भाँति चक्षु