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स्याद्वादबोधिनी-३७
प्रागमप्रमाण से भी सर्वज्ञ को जानना सम्भव नहीं है क्योंकि वेद आदि शास्त्रों-पागमों में पूर्वापर विरोध दोष परिलक्षित है।
(४) ईश्वर स्वतन्त्र है-वैशेषिकदर्शन की ईश्वर स्वातन्त्र्य सम्बन्धी अवधारणा भी श्रीजैनमतानुसार निर्मूल है। स्वतन्त्र ईश्वर दुःखों से परिपूर्ण विश्व की रचना क्यों करता है ? यदि ऐसा है तो ईश्वर क्रूर या निर्दय कहा जाना चाहिए। यदि प्राणियों के अदृष्ट बल या कर्मों के अनुसार ही ईश्वर सुख-दुःख प्रदान करता है तो सृष्टि को कर्मप्रधान ही मानना चाहिए। ईश्वर को कर्ता मानने की आवश्यकता नहीं है ।
(५) ईश्वर नित्य है-वैशेषिक प्रतिपादित ईश्वर की नित्यता भी संदिग्ध है। जैनमत का प्रश्न है कि सर्वथा नित्य माने जाने वाले ईश्वर को सतत कार्यशील मानने पर किसी कार्य की समाप्ति ही सम्भव नहीं होगी। अक्रियाशील मानने पर ईश्वर जगत् का निर्माता नहीं हो सकता। अतः ईश्वर को विश्व-जगत् का रचयिता मानना किसी प्रकार भी युक्तिसंगत नहीं है ।। ६ ।।