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स्याद्वादबोधिनी-३५
तात्पर्यार्थ कथन यह है कि-(१) 'ईश्वर' जगत् का कर्ता है, (२) वह एक है, (३) सर्वव्यापी सर्वज्ञ है, (४) स्वतन्त्र है और (५) नित्य है। इस प्रकार की वैशेषिक मान्यता का श्रीजैन मतानुसार क्रमशः खण्डन इस प्रकार है
(१) 'ईश्वर' जगत् का कर्ता है-वैशेषिक मानते हैं कि संसार में जो-जो कार्य हैं वे किसी-न-किसी बुद्धिमान् कर्ता के द्वारा अवश्य किये गये हैं। जैसे-भवन इत्यादि । पृथ्वी आदि भी कार्य हैं तथा इनको भी किसी कर्ता ने बनाया है, क्योंकि जो कार्य नहीं है वह किसी कर्ता के द्वारा भी नहीं बनाया गया है। जैसे-पाकाश ।
जैनमत यह है कि वैशेषिकों की मान्यता ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त अनुमान, प्रत्यक्ष से बाधित है। हमें पृथ्वी आदि का कोई कर्ता नयनगोचर नहीं होता। घट या गृह का दृष्टान्त विषम है, क्योंकि घट-भवनादि कार्य सशरीर कर्ता के ही बनाये हुए दृष्टिगोचर होते हैं तथा ईश्वर अशरीरी कर्त्ता माना गया है। ईश्वर को सशरीर मानने पर अन्योन्याश्रय आदि अनेक दोष सम्भव हैं।