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स्याद्वादबोधिनी-३३
हैं। वह विश्व-रचयिता एक है क्योंकि अनेक होने पर कार्य में विषमता सम्भव है। वह सर्वव्यापी सर्वज्ञ है क्योंकि असर्वज्ञत्व स्थिति में त्रिभुवन-कर्तृत्व सम्भव नहीं है। वह स्वतन्त्र है, क्योंकि पराधीन होने पर अपनी रुचि के अनुसार कार्य करना सम्भव नहीं होता । ___ स्वामी की आज्ञा के अनुरूप कार्य होता है। वह अविनाशी (नित्य) है क्योंकि जो स्वयं विनश्वर हो वह विश्व-जगत् की संरचना कैसे कर सकता है ? इन (उक्त) विशेषणों से समन्वित विश्व-जगत् की रचना करते-न करने तथा अन्यथा (मिटाने) करने में समर्थ ईश्वर है।
उक्त प्रकार की मान्यता रखने वालों के प्रति कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्रसूरीश्वरजी म. श्री ने कहा है कि-'कुहेवाकविडम्बनाः ।' 'हेवाक' शब्द का अर्थ हैवृथा कल्पना। 'कुत्सिताश्च ताः हेवाकाः ता एव विडम्बनाः'-यह समास प्रकार है। संसार में अनुचित कल्पना करने वाले स्वयं परास्त (पराभूत) होते हैं । अप्रत्यक्ष वस्तु के प्रति जलताड़नादि क्रिया के समान व्यर्थ प्रयास नहीं करना चाहिए।