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स्याद्वादबोधिनी-१५
सर्वज्ञ श्री प्राचार्य महाराजश्री ने आग्रह किया है कि वे एकबार पूर्वाग्रह त्याग कर गम्भीरता से इस पर विमर्श तो करें।
सर्वज्ञ विभु श्री महावीर स्वामी भगवान के यथार्थवादी होने पर आग्रह या प्रार्थना की, वस्तुतः, कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि गुणों के प्रति सभी सहजरूप से आकृष्ट होते हैं। भला, यथार्थवादी भगवान के प्रति किस का आदर भाव नहीं होगा। अर्थात् सभी का आदर भाव सहज सम्भव है। वस्तुतः यह प्रार्थना नहीं है, अपितु हितोपदेश है। जैसे-कटु औषधि का, रोगी यदि हितकारी व्यक्ति (वैद्य) के वचनानुसार सेवन करता है तो उसी का लाभ होता है; किसी अन्य का नहीं । धर्मोपदेशक जन-साधारण के हित की कामना से उपदेश देते हैं। यदि कोई श्रोता उपदेश को आत्मसात् करके जीवन में क्रियान्वित करता है तो उसी को लाभ होता है, उपेक्षाभाव रखने वाले को नहीं। वक्ता को तो एकान्त लाभ ही है। सज्जनों की विभूतियाँ परोपकार के लिए ही होती हैं। परोपकार करना ही सार्थक है ।
टिप्पणी : [१] इदमस्तु संनिकृष्ट, समीपतरवत्ति चेतदो रूपम् ।
अदसस्तु विप्रकृष्टे, तदिति परोक्षे विजानीयात् ।। ३ ।।