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स्याद्वादबोधिनी-१४
यायी आपको स्वामी नहीं मानते, तथापि वे लोग सत्य न्याय मार्ग का गम्भीरता से पक्षपात रहित होकर, जरा नेत्र बन्द कर (वैचारिक मुद्रा अपना कर ) विचार-विमर्श तो करें |
15 भावार्थ - सत्य-असत्य तथा तत्त्व-तत्त्व का विचार न करने वाले अन्य मतावलम्बी, प्राप में असाधारण गुणों के होने पर भी श्रापको ईश्वर नहीं मानते क्योंकि वे आपके गुणों के प्रति असूया भाव रखते हैं । गुणों के विद्यमान रहने पर भी दोषदर्शन करने को 'प्रसूया' कहते हैं - 'गुणेषु दोषाविष्करणम् असूया' । इसी प्रकार भगवान की आज्ञा का प्रतिषेध करने वालों के प्रति कलिकाल सर्वज्ञ श्री प्राचार्य महाराजश्री कहते हैं कि- तथापि ( श्राप की श्राज्ञा को न मानकर भी ) वे अन्यमतानुयायी वैचारिक दृष्टि से पूर्वाग्रह त्याग कर नेत्रबन्द कर नीतिराजपथ रूपी 'स्याद्वाद' पर विचार तो करें |
तात्पर्य यह है कि - न्याय और वेदान्तादि दर्शन की वासना से वासित विद्वान् नित्यज्ञानवान को ईश्वर मानते हैं; कर्मक्षय से समुत्पन्न ज्ञान युक्त श्री वर्द्धमान जिनेश्वर को नहीं । अतः इनकी मान्यता है कि वह सबका स्वामी नहीं हो सकता । ' तथापि ' पद से प्रारम्भ करके कलिकाल