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स्याद्वादबोधिनी-२०
अतः पदार्थान्तर के बिना सभी पदार्थ एकाकार प्रतोति के विषय होते हैं। - वैशेषिकों का कथन यह है कि सामान्य, विशेष पदार्थों से भिन्न और परस्पर निरपेक्ष है। यथा-घट में घटत्व समवाय सम्बन्ध से रहता है तथा नील-पीत-रक्तादि भी समवाय सम्बन्ध से रहते हैं ।
श्री जैनदर्शन अनेकान्त स्वरूप है, प्रतः सामान्य-विशेष को पदार्थों से एकान्त भिन्न स्वीकार नहीं करता। श्री जैनदर्शन के अनुसार घट में घटत्व तथा नील-पीत-रक्तादि किसी सम्बन्ध विशेष से नहीं रहते, ये स्वयं घट के ही गुण हैं। अतः पदार्थों से सर्वथा भिन्न सामान्य और विशेष नाम के पदार्थों को स्वीकार करने की कोई आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार वैशेषिक दर्शन की सामान्य-विशेष मान्यता का खण्डन हो जाता है। अकुशली वैशेषिक, उक्तविध सामान्य-विशेष प्रतिपादन के कारण पदे-पदे दोष दशा को प्राप्त होते हैं ।। ४ ।।
टिप्पणी[१] एकाकारा प्रतीतिरेकशब्दवाच्यता अनुवृत्तिः । [२] सजातीय-विजातीयेभ्यः सर्वथा व्यवच्छेदः व्यतिवृत्तिः ।
[स्याद्वादमञ्जरी ४/१३] अथवा अनुवृत्तिः-अन्वयः, व्यतिवृत्तिः-व्यतिरेकः ।