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स्याद्वादबोधिनी-१६
- भाषानुवाद - * श्लोकार्थ-पदार्थ स्वभाव से ही सामान्य-विशेष रूप हैं। उनमें सामान्य-विशेष की प्रतीति कराने के लिए पदार्थान्तर मानने की आवश्यकता नहीं है । अकुशली पर रूप और असत्य रूप (मिथ्यारूप) सामान्य-विशेष को पदार्थ से भिन्नरूप कहते हैं। ऐसा कहने के कारण वे न्यायमार्ग से भ्रष्ट होते हैं ।। ४ ।।
9 भावार्थ-भाव शब्द भू + घञ् प्रत्यय से निष्पन्न होता है। आत्मा और पुद्गल आदि पदार्थ अपने स्वरूप से ही अर्थात् सामान्य और विशेष नामक पृथक् पदार्थों की सहायता के बिना हो सामान्य-विशेषरूप होते हैं। एकाकार और एक नाम से कही जाने वाली प्रतीति को अनुवृत्ति अथवा सामान्य कहते हैं। सजातीय और विजातीय पदार्थों से सर्वथा अलग होने वाली प्रतीति को व्यावृत्ति अथवा विशेष कहते हैं। प्रात्मा और पुद्गल
आदि पदार्थ स्वभाव से ही इन दोनों धर्मों से संवलित सामान्य-विशेष होते हैं।
भाव का तात्पर्य वस्तु है। भाष्यकार के अनुसार सभी वस्तुएँ सामान्य-विशेषोभयधर्म संवलित होती हैं । निविशेष सामान्य (जाति) की स्थिति सम्भव नहीं है ।