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स्याद्वादबोधिनी - ११
का आश्रय लेकर कुछ सौगतानुयायी एकान्तरूप से अनित्य मानते हैं । प्रमाणवादी ( आपके ) द्वारा तो अनेकान्तरूप से पदार्थ की सत्ता नित्य, अनित्य, वाच्य, प्रवाच्य आदि स्थिति में वर्तमान है ।
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एक हाथ से कभी भी ताली नहीं बजती । लौकिक व्यवहार भी एकान्तवाद से नहीं चलता है | अतः आपका कथन पक्षपात से रहित है और यथार्थवाद के रूप में प्रतिष्ठित है । उसकी मैं स्तुति करता हूँ । कहा भी है कि- सब के स्वभाव की ही परीक्षा की जाती है, अन्य गुणों को नहीं । व्यावहारिक विश्व जगत् में भी हम देखते हैं कि पाचक (रसोइया) चावल के एक प्राध दाने को स्पर्श करके समस्त चावलों की परिपक्वता का ज्ञान करता है । अतः आपके बहुश्रुत अनुपम भक्त सुप्रसिद्ध कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज श्री ने आपको मात्र यथार्थवादिता की स्तुति की है ।
'स्तवाय' स्पृहयालुः इस पद में 'स्पृहेरीप्सितः' सूत्र से चतुर्थी विभक्ति हुई है । तादर्थ्ये चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग प्रकृति - विकृति-भावात्मक स्थलों पर ही होता है । जैसेयूपाय दारु ( स्तम्भ बनाने के लिए लकड़ी ) कुण्डलाय सुवर्णम् = कुण्डल बनाने के लिए सोना ॥२॥