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सत्य दर्शन/५
भी विधि से उसको प्रसन्न करना उसके जीवन का प्रधान और एकमात्र लक्ष्य था। इस प्रकार हजारों गलतियाँ साधना के नाम पर मानव-समाज में पैदा हो गई थीं । ऐसी स्थिति में भगवान महावीर आगे आए और उन्होंने एक ही बात बहुत थोड़े से शब्दों में कह कर समस्त भ्रान्तियाँ दूर कर दीं। भगवान् कौन है? महावीर स्वामी ने बतलाया कि वह भगवान् तो सत्य ही है। सत्य ही आपका भगवान् है। अतएव जो भी साधना कर सकते हो और करना चाहते हो, सत्य को सामने रखकर ही करो। अर्थात् सत्य होगा तो साधना होगी, अन्यथा कोई भी साधना संभव नहीं है।
अस्तु , हम देखते हैं कि जब-जब मनुष्य सत्य के आचरण में उतरा, तो उसने प्रकाश पाया और जब सत्य को छोड़कर केवल ईश्वर की पूजा में लगा और उसी को प्रसन्न करने में प्रयत्नशील हुआ, तो ठोकरें खाता फिरा और भटकता रहा।
आज हजारों मन्दिर हैं और वहाँ ईश्वर के रूप में कल्पित व्यक्ति-विशेष की. पूजा की जा रही है, किन्तु वहाँ भगवान् सत्य की उपासना का कोई सम्बन्ध नहीं होता। चाहे कोई जैन हो या अजैन हो, मूर्तिपूजा करने वाला हो या न हो, अधिकांशतः वह अपनी शक्ति का उपयोग एक मात्र ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए ही कर रहा है, उसमें वह न न्याय को देखता है, न अन्याय का विचार करता है। हम देखते हैं और कोई भी देख सकता है कि भक्त लोग मन्दिर में जाकर ईश्वर को अशर्फी चढ़ाएँगे और हजारों-लाखों के स्वर्ण मुकुट पहना देंगे; किन्तु मन्दिर से बाहर आएँगे तो उनकी सारी उदारता न जाने कहाँ गायब हो जायगी? मन्दिर के बाहर, द्वार पर, गरीब लोग पैसे-पैसे के लिए सिर झुकाते हैं, बेहद मिन्नतें और खुशामद करते हैं, धक्का-मुक्की होती है; परन्तु ईश्वर का वह उदार पुजारी मानो आँखें बन्द करके, नाक-भौंह सिकोड़ता हुआ और उन दरिद्रों पर घृणा एवं तिरस्कार बरसाता हुआ अपने घर का रास्ता पकड़ता है। इस प्रकार जो पिता है-उसके लिए तो लाखों के मुकट अर्पण किये जाएँगे, किन्तु उसके लाखों बेटों के लिए, जो.पैसे-पैसे के लिए दर-दर भटकते फिरते हैं, कुछ भी नहीं किया जाता। उनके जीवन की समस्या को हल करने के लिए तनिक भी उदारता नहीं दिखलाई जाती ।
जन-साधारण के जीवन में यह विसंगति आखिर क्यों, और कहाँ से आई है ? आप विचार करेंगे तो मालूम होगा कि इस विसंगति के मूल में सत्य को स्थान न दंना ही है। क्या जैन और क्या अजैन, सभी आज बाहर की चीजों में उलझ गए हैं
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