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४/सत्य दर्शन
स्वीकार नहीं कर सकता। यह कदापि संभव नहीं कि मन में अहिंसा को स्थान न दिया जाए और सत्य को स्थान दिया जा सके। ___अहिंसा का स्वरूप अत्यन्त विराट है। अहिंसा की उर्वरा भूमि में हो सत्य का पौधा उग सकता है और पनप सकता है। हमारा समग्र जीवन-व्यवहार अहिंसा से ओत-प्रोत होना चाहिए और ऐसा होने पर ही उसका वास्तविक विकास सम्भव है। इस रूप में हमारे जीवन के विकास के लिए अहिंसा एक प्रधान साधन है।
हमारे जीवन में सत्य का महत्त्व महान् है । लेकिन साधारण बोल-चाल की प्रचलित भाषा में से यदि हम सत्य का प्रकाश ग्रहण करना चाहें, तो सत्य का वह महान् प्रकाश हमें नहीं मिलेगा। सत्य का दिव्य-प्रकाश प्राप्त करने के लिए हमें अपने अन्तरतर की गहराई में दूर तक झाँकना होगा।
आप विचार करेंगे, तो पता चलेगा कि जैनधर्म ने एक बहुत बड़ी क्रान्ति की है। विचार कीजिए, उस क्रान्ति का क्या रूप है ?
__ हमारे जो दूसरे साथी हैं, दर्शन हैं, और आसपास जो मतमतान्तर हैं, उनमें ईश्वर को बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। वहाँ साधक की सारी साधनाएँ ईश्वर को केन्द्र बनाकर चलती हैं। उनके अनुसार यदि ईश्वर को स्थान नहीं रहा, तो साधना का भी कोई स्थान नहीं रह जाता। किन्तु जैनधर्म ने इस प्रकार ईश्वर को साधना का केन्द्र नहीं माना है। साधना का आधार :
तो फिर जैनधर्म की साधना का केन्द्र क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर भगवान् महावीर के शब्दों के अनुसार यह है
तं सच्चं खु भगवं।
प्रश्नव्याकरण सूत्र, द्वि. सं. मनुष्य ईश्वर के रूप में एक अलौकिक व्यक्ति के चारों ओर घूम रहा था। उसके ध्यान में ईश्वर एक विराट व्यक्ति था और उसी की पूजा एवं उपासना में वह अपनी सारी शक्ति और समय व्यय कर रहा था। वह उसी को प्रसन्न करने के लिए कभी गलत और कभी सही रास्ते पर भटका और लाखों धक्के खाता फिरा । जिस किसी
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