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२/ सत्य दर्शन
जैसा कि अभी कहा जा चुका है, इन पाँच मर्यादाओं में ही समस्त आन्तरिक और बाह्य, सूक्ष्म और स्थूल आचार-विचार का अन्तर्भाव हो जाता है। जो साधक इन मर्यादाओं के प्रति निरन्तर सजग रहता है, वह अबाध रूप से अपनी साधना की मंजिल तय करता जाता है, और अन्ततः मानवीय विकास की चरम सीमा को स्पर्श करता है।
यद्यपि ये पाँचों मर्यादाएँ या मूलगुण अपने-आप में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं, तथापि गंभीर विचार करने पर यह भी स्पष्ट हुए बिना नहीं रहता कि इन सब के मूल में भी एक ही भावना काम कर रही है। वह भावना अहिंसा की भावना है । सत्य, अस्तेय आदि को अहिंसा की ही एक-एक शाखा कहा जा सकता है।
असत्य भाषण करना पाप है, चोरी करना पाप है, अब्रह्मचर्य पाप है, ममता या आसक्ति पाप है; क्योंकि इन सबसे हिंसा होती है। इन पापों के सेवन से कभी पर-हिंसा होती है और कभी स्व-हिंसा होती है। स्व-हिंसा, अर्थात् आत्मिक गुणों का विघात भी पर-पीड़ा के समान पाप में गिना गया है और कहना चाहिये कि वह एक बड़ी भारी हिंसा है। ___ आचार्य अमृतचन्द्र ने और अन्य आचार्यों ने भी इस विषय में स्पष्ट उल्लेख किए हैं । अंमतचन्द्र कहते हैंअनृतवचने ऽपि तस्यानियतं हिंसा समवतरति ।
-पुरुषार्थसिद्धयुपाय, ९९ अर्थात्-"असत्य भाषण का मूल कषाय है और जहाँ कषाय है, वहाँ हिंसा होती ही है। अतएव असत्य भाषण में भी अवश्य हिंसा होती है।"
हिंसायाः स्तेयस्य च नाव्याप्तिः सुघटैव सा यस्मात् । ग्रहणे प्रमत्तयोगो द्रव्यस्य स्वीकृतस्यान्यै : ॥
__-पुरुषार्थ., १०४ अर्थात्-"हिंसां और चोरी की अव्याति नहीं है, बल्कि जहाँ स्तैय है, वहाँ हिंसा अवश्य है ; क्योंकि दूसरों के द्वारा स्वीकृत द्रव्य को ग्रहण करने में कषाय का होना आवश्यक है।"
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