Book Title: Satya Darshan
Author(s): Amarmuni, Vijaymuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 12
________________ सत्य भगवान् जब मनुष्य किसी भी प्रकार की साधना में अपने जीवन को प्रवृत करता है, तो उसे उस साधना के अनुरूप कुछ मर्यादाएँ स्वेच्छापूर्वक स्वीकार करनी पड़ती हैं। वह मर्यादाएँ उसे एक प्रकार का बल प्रदान करती हैं और उस बल को प्राप्त करके साधक अपनी साधना में अग्रसर होता हुआ अन्त में सफलता प्राप्त करता है। स्वेच्छापूर्वक अंगीकार की हुई मर्यादाओं के अभाव में मनुष्य का पर्याप्त संकल्प-बल जागृत नहीं होता और पर्याप्त संकल्प-बल के अभाव में कोई भी साधना पूरी तरह सफल नहीं हो पाती। धार्मिक जीवन आरम्भ करने के सम्बन्ध में भी यही बात है। जो मनुष्य धर्म की साधना के लिए उद्यत हुआ है, उसके लिए भी अनेक मर्यादाओं का विधान है। उन मर्यादाओं का क्षेत्र, जैनशास्त्रों के अनुसार अत्यन्त व्यापक है, और उनमें जीवन की सम्पूर्ण आचार-प्रणाली का समावेश हो जाता है। इस समय उन समस्त मर्यादाओं के उल्लेख करने और उनका विवेचन करने का अवसर नहीं है। अतएव मैं केवल उन मूलभूत मर्यादाओं पर ही विचार करूँगा, जो अन्य समस्त मर्यादाओं का प्राण हैं, और जिनके आधार पर ही उनका निर्माण हुआ है। जैन-शास्त्र की परिभाषा में उन मूलभूत मर्यादाओं को 'मूलगुण' की सार्थक संज्ञा दी गई है। मूलव्रत धर्म-साधना के क्षेत्र में कदम रखने वाले साधक के लिए जैन शास्त्रों में बड़े-बड़े विधान हैं । साधक को कब खाना चाहिए, क्या खाना चाहिए और किस प्रकार खाना चाहिए ? कब और कैसे सोना चाहिए ? किस प्रकार चलना चाहिए ? कब, कौन-सा कार्य करना चाहिए ? आदि छोटी-छोटी बाह्य क्रियाओं के सम्बन्ध में भी स्पष्ट रूप से मर्यादाएँ स्थिर की हुईं हैं। उसके लिए मानसिक क्रियाओं की भी सूक्ष्म मर्यादा बतलाई गई है। परन्तु इन सब मर्यादाओं की मूलभूत मर्यादाएँ पाँच ही हैं । वह इस प्रकार हैं-१ अहिंसा, २. सत्य. ३. अस्तेय. ४. ब्रह्मचर्य, और ५ अपरिग्रहः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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