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प्रस्तावना
है । वे इन स्तवनों तथा स्मरणोंको कुशल परिणामका-पुण्य- ।
प्रसाधक शुभ भावोंका-कारण बतलाते हैं और इनके द्वारा ! श्रेयोमार्गका सुलभ तथा स्वाधीन होना प्रतिपादन करते हैं।
और यह उनका केवल बतलाना तथा प्रतिपादन करना ही नहीं । बल्कि स्वानुभवपूर्ण कथन है-वे स्वयं इन स्मरणादिकोंके रूपमें
की गई सेवाके प्रभावसे ही अपनेको तेजस्वी, सुजन तथा सुकृती ! । ( पुण्यवान् ) होना प्रकट करते हैं।। और इससे इन स्मरणोंका
महत्व बिलकुल स्पष्ट होजाता है। ___जब जब मैं स्वामी समन्तभद्रादि जैसे महान् आचार्योंके पुरा
तन स्मरणोंको पढ़ता रहा हूँ तब तब मेरे हृदयमें बड़े ही पुष्ट ! विचार उत्पन्न हुए हैं, औद्धत्य तथा अहंकार मिटा है, अपनी !
त्रुटियोंका बोध हुआ है और गुणोंमें अनुराग बढ़कर आत्मविकासकी ओर कुछ रुचि पैदा हुई है। साथ ही, अनेक उलझने , भी सुलझी हैं । इन स्मरणोंको पढ़ते हुए सदा ही मेरी यह भावना रही है कि मुझे जो आनन्द तथा लाभ इनसे प्राप्त होता है वह ,
दूसरोंको भी होवे। इसीसे मैं कितने ही स्मरणोंको, उनके मर्मस्पर्शी । * हिन्दी अनुवादके साथ 'अनेकान्त' पत्रमें प्रकट करता रहा हूँ। ! बहुत दिनोंसे मेरी इच्छा थी कि मैं उन सब स्मरणोंको, जो मेरी !
मति तथा स्मृतिको प्रदीप्त करते हुए मेरे आनन्दका विषय रहे हैं, एक मंगलपाठके रूप में संयोजित करूँ, जिससे इधर उधर बिखरे , हुए उत्तम स्मरणोंका एक अच्छा एकत्र संग्रह होजाय और उससे सभी जन यथेष्ट लाभ उठा सके। उसीके फलस्वरूप आज यह
* देखो, जिनशतक पद्य ११५।। + देखो; स्वयम्भूस्तोत्र पद्य ११६।। देखो, जिनशतक पद्य ११४ ।