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प्रकीर्णक- पुस्तकमाला
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परमसाधु-मुख-मुद्रा
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अताम्रनयनोत्पलं सकलकोपवन्हेर्जयात् कटाक्षशरमोक्षहीनमविकारतोद्रेकतः । विषाद-मद- हानितः प्रहसितायमानं सदा मुखं कथयतीव ते हृदय-शुद्धिमात्यन्तिकीम् ॥
— चैत्यभक्ति
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' ( हे परमसाधु जिनेन्द्र ! ) आपका मुख, संपूर्ण कोप - वन्हिपर विजय प्राप्त होनेसे - अनन्तानुबन्ध्यादि - भेद - भिन्न समस्त क्रोधरूप अग्निका क्षय हो जानेसे, अताम्रनयनोत्पल है-उसमें स्थित दोनों नयन - कमल-दल सदा अताम्र रहते हैं, उनमें कभी क्रोधसूचिका सुख नहीं आती; और अविकारता के उद्रेक से — वीतताकी आप में परमप्रकर्षको प्राप्ति होने से - कटाच बाणों के मोचन - व्यापार से रहित है— कामोद्रेकादिके वशीभूत होकर तिर्यग्दृष्टिपातरूप कटाक्षवाणोंको छोड़ने जैसी कोई क्रिया नहीं करता है। साथ ही, विषाद और मदकी सर्वथा हानि हो जानेसे - उनका अस्तित्व ही आपके आत्मा में न रहनेसे - सदा ही प्रहसितायमान रहता है - प्रहसित - प्रफुल्लित की तरह आचरण करता हुआ निरन्तर ही प्रसन्न बना रहता है । इन तीन विशेषणों से विशिष्ट आपकी मुख - मुद्रा आपकी आत्यन्तिकी - अविनाशी - हृदयशुद्धिका द्योतन करती है । भावार्थ - हृदयको
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