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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला
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को — द्वादशाङ्गश्रुतको — उत्तमरूपसे धारण किया है, जो सुशब्दोंकी रचना सुन्दर है ।'
'श्रुतकेवली मुनीश्वरों में अन्तिम होते हुए भी, श्रीभद्रबाहुस्वामी, संपूर्णश्रुतके अर्थका प्रतिपादन करनेसे, विद्वज्जनोंके प्रथम नेता हुए हैं - अपने बाद के सभी विद्वानों में प्रधान हुए हैं ।' निरन्तरानन्त-गतात्मवृत्तिं निरस्त - दुर्बोध- तमोवितानम् । श्रीभद्रबाहूष्णकरं विशुद्धं विनंनमीमीहितशात - सिद्ध्यै । — भद्रबाहुचरित्रे, श्रीरत्ननन्दी 'जिनकी आत्मप्रवृत्ति निरन्तर ही अनन्तस्वरूप परमात्माकी ओर रही है- जिन्होंने परमात्मगुणोंकी प्राप्ति के लिये सदा ही कदम बढ़ाया है - और मिथ्याज्ञानरूप अन्धकारके विस्तार (समूह) को दूर किया है उन निर्मलसूर्य श्रीभद्रबाहु - स्वामीको मैं, इच्छित निराकुल सुखकी सिद्धिके लिये, बहुत ही विनम्र होकर नमस्कार करता हूँ ।'
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श्रीगुणधर- स्मरण
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जेहि कसायपाहुडमणेय रायमुज्जलं अतत्थं । गाहाहि विवरियं तं गुणहर - भट्टारयं वंदे ||
-जयधवलायां, श्रीवीरसेनः 'जिन्होंने अनेक नयसे युक्त, उज्ज्वल और अनन्त पदार्थोंको लिये हुए कषायप्राभृतको गाथाओं के द्वारा विवृत ( व्यक्त) किया है
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