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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला g++de++ ++ ++S++S++S++ ++ ++ ++S++ ++g
देवस्याऽनन्तवीर्योऽपि पदं व्यक्तुं तु सर्वतः। न जानीतेऽकलङ्कस्य चित्रमेतत्परं भुवि ॥ अकलङ्कवचोऽम्भोधेः सूक्करत्नानि यद्यपि । गृह्यन्ते बहुभिः स्वैरं सद्रत्नाकर एव सः ॥
-सिद्धिविनिश्चये, श्रीअनन्तवीर्याचार्यः 'अनन्तवीर्य होकर-कहलाकर-भी मुझे अकलंकदेवके पदसमूह (शास्त्र ) को पूरी तौरसे व्यक्त करना नहीं आता-मैं 1 उसकी व्याख्यामें अपनेको असमर्थ पाता हूँ, यह लोकमें बड़े ही।
आश्चर्यकी बात है। अकलंकके वचनसमुद्रसे यद्यपि बहुत विद्वानोंने स्वेच्छानुसार सूक्तरत्नोंको ग्रहण किया है-अपनी अपनी कृतियों में अकलंककी सूक्तियोंको अपनाया है-फिर भी, वह उत्तम ( सूक्त-) रत्नोंका आकर-खजाना बना ही हुआ हैउसकी सदन-निधिका अन्त होने में नहीं आता।'
भूयोभेदनयावगाह-गहनं देवस्य यद्वाङ्मयम् । कस्तद्विस्तरतो विविच्य वदितं मन्दः प्रभुर्मादृशः॥
--न्यायविनिश्चय-विवरणे, श्रीवादिराजसूरिः ___श्रीअकलंकदेवका जो प्रवचन-'न्यायविनिश्चय' ग्रन्थबहुभेदों तथा नयोंके अवगाहनसे गहन है-नाना प्रकारके भंगों
तथा नयोंकी विविक्षाको आत्मसात करके अतिगंभीर बना हुआ र है-उसका विस्तारसे विवेचनात्मक कथन करनेके लिये मेरे जैसा मन्दबुद्धि कौन समर्थ हो सकता है ?-कोई भी नहीं।'
येनाऽशेषकुतर्कविभ्रमतमो निर्मूलमुन्मूलितम्
स्फारागाध-कुनीतिसार्थसरितो निःशेषतः शोषिताः। ++ ++S++ ++ ++ ++++ ++ ++ ++ ++ ++
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