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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला R++S++GD++20++ ++20++++00++ ++S++ ++Getta ११ समन्तभद्र-जयघोष
जीयात्समन्तनद्रोऽसौ भव्य-कैरव-चन्द्रमाः। दुर्वादि-वाद-कण्डूनां शमनैकमहौषधिः ॥
-हनुमच्चरित्रे, श्रीब्रह्मअजितः ___'वे स्वामी समन्तभद्र जयवन्त हों-अपने ज्ञान-तेजसे हमारे हृदयोंको प्रकाशित करें जो भव्यरूपी कुमुदोंको प्रफुल्लित करने
वाले चन्द्रमा थे और दुर्वादियोंकी वादरूपी खाज ( खुजली) + को मिटाने के लिये अद्वितीय महौषधि थे जिन्होंने कुवादियोंकी 0 बढ़ती हुई वादाभिलाषाको हो नष्ट कर दिया था।'
समन्तभद्रस्स चिराय जीयाद्वादीभ-वज्रांकुश-सूक्तिजालः। यस्य प्रभावात्सकलावनीयं वंध्यास दुर्वादुक-वार्त्तयाऽपि ॥
श्रवणबेल्गोल-शिलालेख नं० १०५ 'वे स्वामी समन्तभद्र चिरजयी हों-चिरकाल तक हमारे हृदयोंमें सविजय निवास करें-, जिनका सूक्तिसमूह-सुन्दरप्रौढ युक्तियोंको लिये हुए प्रवचन-वादिरूप-हस्तियोंको वशमें , करनेके लिये वज्रांकुशका काम देता है और जिनके प्रभावसे यह सम्पूर्ण पृथ्वी एक बार दुर्वादुकोंकी वार्तासे भी विहीन होगई थी-उनकी कोई बात भी नहीं करता था।' कार्यादेर्भेद एव स्फुटमिह नियतः सर्वथा कारणादे
रित्यायेकान्तवादोद्धततर-मतयः शान्ततामाश्रयन्ति। G++ON++8++8++ ++ ++++ ++ ++ ++ ++ ++
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