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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला a++ ++20++20++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ है और जिनकी यशःकान्तिसे तीनों लोक अथवा भारतके उत्तर, । दक्षिण और मध्य ये तीनों विभाग कान्तिमान थे-जिनका यश2 स्तेज सर्वत्र फैला हुआ था-उन स्वामी समन्तभद्रका मैं स्तवन * करता हूँ।'
समन्तभद्रो भद्रार्थो भातु भारतभूषणः । देवागमेन येनाऽत्र व्यक्तो देवागमः कृतः॥
-पाण्डवपुराणे, भ० शुभचन्द्रः 'जिन्होंने 'देवागम' नामक अपने प्रवचनके द्वारा देवागमको-जिनेन्द्रदेवके आगमको इस लोकमें व्यक्त कर दिया है, वे 'भारतभूषण” और एकमात्र भद्र-प्रयोजनके धारक श्रीसमन्तभद्र लोकमें प्रकाशमान होवे-अपनी विद्या और गुणोंके आलोकसे लोगोंके हृदयान्धकारको दूर करने में समर्थ होवें।'
यद्भारत्याः कविः सर्वोऽभवत्संज्ञानपारगः। तं कवि-नायकं स्तौमि समन्तभद्र-योगिनम् ॥
चन्द्रप्रभचरिते, कविदामोदरः 'जिनकी भारतीके प्रतापसे-ज्ञानभाण्डाररूप मौलिक कृतियोंके अभ्याससे-समस्त कविसमूह सम्यग्ज्ञानका पारगामी हो गया, उन कविनायक-नई नई मौलिक रचनाएँ करनेवालोंके 1 शिरोमणि-योगी श्रीसमन्तभद्रको मैं अपनी स्तुतिका विषय बनाता हूँ-वे मेरे स्तुत्य हैं, पूज्य हैं।'
समन्तभद्रस्संस्तुत्यः कस्य न स्यान्मुनीश्वरः । वाराणसीश्वरस्याग्रे निर्जिता येन विद्विषः ॥
-तिरुमकूडलुनरसीपुर-शिलालेख नं० १०५ S++ ++ ++ ++ ++ ++++ ++ ++ ++ ++ ++
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