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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला P++ ++ ++ ++ ++ ++++ ++ ++ ++ ++ ++
नमः समन्तभद्राय महते कविवेधसे । यद्वचो वज्रपातेन निर्भिन्नाः कुमताद्रयः॥
-श्रादिपुराणे, श्रीजिनसेनाचार्यः 'जो कवियोंको नये-नये संदर्भ रचनेवालोंको-उत्पन्न , करनेवाले महान् विधाता ( कवि-ब्रह्मा ) हैं--, जिनकी मौलिक + रचनाओंको देखकर तथा अभ्यास में लाकर बहुतसे लोग नई-नई
रचना करनेवाले कवि बन गये तथा बनते जाते हैं और जिनके
वचनरूपी वज्रपातसे कुमतरूपी पर्वत खण्ड-खण्ड होगये उनका में कोई विशेष अस्तित्व नहीं रहा-उन स्वामी समन्तभद्रको नमस्कार हो।
समन्ताद्भुवने भद्रं विश्वलोकोपकारिणी । यद्वाणी तं प्रवन्दे समन्तभद्रं कवीश्वरम् ॥
--पार्श्वनाथचरिते, भ० सकलकीर्तिः 'जिनकी वाणी-प्रन्थादिरूप-भारती-संसार में सब ओरसे । मंगलमय-कल्याणरूप है और सारी जनताका उपकार करनेवाली
है उन कवियोंके ईश्वर श्रीसमन्तभद्रकी मैं सादर वन्दना छ * करता हूँ।'
वन्दे समन्तभद्रं तं श्रुतसागरपारगम् । भविष्यसमये योऽत्र तीर्थनाथो भविष्यति ॥
-रामपुराणे, भ० सोमसेनः 'जो श्रुतसागरके पार पहुँच गये हैं-आगमसमुद्रकी कोई 1 बात जिनसे छिपी नहीं रही और जो आगेको यहाँ-इसी , ++ ++ ++ ++ ++ ++++ ++ ++ ++ ++ ++6
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