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प्रकीर्णक पुस्तकमाला
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४ समन्तभद्र - कीर्तन -
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कवीनां गमकानां च वादीनां वाग्मिनामपि । यशः सामन्तभद्रीयं मूर्ध्नि चूडामणीयते ।। -- श्रादिपुराणे, श्रीजिनसेनाचार्यः 'श्री समन्तभद्रका यश कवियोंके नये नये सन्दर्भ अथवा नई नई मौलिक रचनाएँ तय्यार करनेमें समर्थ विद्वानोंके - गमकोंके - दूसरे विद्वानोंकी कृतियोंके मर्म एवं रहस्यको समझनेवाले तथा दूसरों को समझाने में प्रवीण व्यक्तियोंके, विजयकी ओर वचनप्रवृत्ति रखनेवाले वादियोंके, और अपनी वाक्पटुता तथा शब्द चातुरीसे दूसरोंको रंजायमान करने अथवा अपना प्रेमी बना लेनेमें निपुण ऐसे वाग्मियोंके मस्तकपर चूडामणिकी तरह सुशोभित है। अर्थात् स्वामी समन्तभद्र में कवित्व, गमकत्व, वादित्व और वाग्मित्व नामके चार गुण असाधारण - कोटिकी योग्यताको लिये हुए थे —— ये चारों ही शक्तियाँ उनमें खास तौर से विकासको प्राप्त हुई थीं- और इनके कारण उनका निर्मल यश दूर दूर तक चारों ओर फैल जितने वादी, वाग्मी, कवि और गमक थे यशकी छाया पड़ी हुई थी - समन्तभद्रका यश चूडामणि के तुल्य सर्वोपरि था — और वह बादको भी बड़े बड़े विद्वानों तथा महान् आचार्योंके द्वारा शिरोधार्य किया गया है।'
गया था। उस बक्त उन सब पर उनके
समन्तभद्रोऽजनि भद्रमूर्तिस्ततः प्रणेता जिनशासनस्य । यदीय-वाग्वज्र- कठोरपातश्चूर्णीचकार प्रतिवादि - शैलान | -- श्रवणबेलगोल - शिलालेख नं० १०८
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