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सत्साधु- स्मरण - मंगलपाठ
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उन गुणधर भट्टारकको — पूज्यश्री गुणधराचार्यको मैं वन्दना करता हूँ- उनके आगे नतमस्तक होता हूँ ।'
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श्रीधरसेन स्मरण
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परियउ मह धरसेो पर वाइ- गोह - दाण - वर सीहो । सिद्धंतामिय- सायर - तरंग-संघाय - धोय-मणो || जयउ धरसेण-गाहो जेण महाकम्प - पय डि- पाहुड सेलो । बुद्धिसिरेणुद्धरि समप्पियो पुप्फयंतस्स ||
- धवलायां, श्रीवीरसेनः 'जो पर - वादीरूप गजसमूहके मदका विनाश करनेके लिये श्रेष्ठ सिंहके समान हैं -- जिनके सामने अन्य मतों के वादीजन उसी प्रकार गलित - मद एवं निस्तेज हो जाते हैं जिस प्रकार कि केशरी सिंह के सामने मद भरते हुए हाथी निर्मद और निष्प्रभ हो जाते हैं-- और सिद्धान्त - आगमरूप अपरिमित सागरकी 'तरंगों' के समूह से जिनका मन धोया हुआ है-- धुलकर निर्मल बना हुआ है - वे श्रीधरसेन आचार्य मुझपर प्रसन्न होवें - मैं प्रसन्नतापूर्वक उनका आराधन करने में समर्थ होऊँ ।
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'जिन्होंने 'महाकर्मप्रकृति - प्राभृतरूप पर्वतको बुद्धि-शिरासे उद्धृत किया है - बुद्धिप्रवाहसे उखाड़ा है और उसे पुष्पदन्तको समर्पित किया है, वे श्रीधरसेनस्वामी जयवन्त हों --सदा लोकहृदयों में विराजित रहें ।'
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