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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला
'उन ( श्रीचन्द्रगुप्त मुनिराज ) के प्रसिद्ध वंश में वे श्रीकुन्दकुन्द मुनीश्वर हुए हैं जिनका पहला - दीक्षा - समयका - नाम 'पद्मनन्दी' था और जिन्हें सत्संयमके प्रसादसे चारण ऋद्धिकीपृथ्वीपर पैर न रखते हुए स्वेच्छा से आकाश में चलनेकी शक्तिकी प्राप्ति हुई थी ।'
रजोभिरस्पृष्टतमत्वमन्तर्बाह्येऽपि संव्यञ्जयितुं यतीशः ।
रजः पदं भूमितलं विहाय चचार मन्ये चतुरं गुलं सः ॥
- श्रवणबेलगोल शिलालेख नं० १०५
'योगिराज ( श्री कुन्दकुन्द ) रजःस्थान पृथ्वी - तलको छोड़कर जो चार अंगुल ऊपर आकाश में गमन करते थे उसके द्वारा, मैं समझता हूँ, वे इस बातको व्यक्त करते थे कि वे अन्तरङ्गके साथ साथ बाह्यमें भी रजसे अत्यन्त अस्पृष्ट हैं - अन्तरङ्गमें रागादिकमल जिस प्रकार उनके पास नहीं फटकते उसी प्रकार बाह्यमें पृथ्वीकी धूलि भी उन्हें छू नहीं पाती ।'
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