Book Title: Satsadhu Smaran Mangal Path
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 20
________________ प्रकीर्णक पुस्तकमाला C++00++@ ++00 धारण करे — मैं कषायवश किसीके दोषोंका उद्घाटन न करूँ -; मेरी वचन प्रवृत्ति सबके लिये प्रिय तथा हितरूप होवे - कषायसे प्रेरित होकर मैं कभी भी ऐसा बोल न बोलू अथवा ऐसा वचन मुँह से न निकालूँ जो दूसरोंको अप्रिय होनेके साथ साथ अहितकारी भी हो; और आत्म-तत्त्व में मेरी भावना सदा ही बनी रहे - मैं एक क्षण के लिये भी उसे न भूलूँ, प्रत्युत उसमें निरन्तर ही योग देकर आत्म-विकासकी सिद्धिका बराबर प्रयत्न करता रहूँ । यही मेरी नित्यकी आत्म-प्रार्थना है । " C+ ३ साधु- वेष-निदर्शक जिन-स्तुति ++++++ [ परमसाधु श्रीजिनदेव - जैनतीर्थंकर - अपनी योग-साधना एवं अर्हन्त-अवस्था में वस्त्रालंकारों तथा शस्त्रास्त्रोंसे रहित होते हैं। ये सब चीजें उनके लिये व्यर्थ हैं। क्यों व्यर्थ हैं ? इस भावको कविवर वादिराजसूरिने अपने 'एकीभाव' स्तोत्रके निम्न पद्य में बड़े ही सुन्दर एवं मार्मिक ढंगसे व्यक्त किया है और उसके द्वारा ऐसी वस्तुओं से प्रेम रखनेवालोंकी असलियतको भी खोला है। इससे यह स्तुति, जो सत्यपर अच्छा प्रकाश डालती है, बड़ी ही प्यारी मालूम होती और अतीव शिक्षाप्रद जान पड़ती है । ] हार्येभ्यः स्पृहयति परं यः स्वभावादहृद्यः शस्त्र-ग्राही भवति सततं वैरिणा यश्च शक्यः । S++QC++9314 H+2@++2C++€€+++ 20++ ++90++QE++90++

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