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प्रकीर्णक पुस्तकमाला
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दया-दम-त्याग-समाधिनिष्ठं नय-प्रमाण - प्रकृताञ्जसार्थम् । अधृष्यमन्यैरखिलैः प्रवादैर्जिन त्वदीयं मतमद्वितीयम् ॥ युक्त्यनुशासने, श्रीसमन्तभद्रः 'हे वीर जिन ! आपका मत - शासन - नय - प्रमाणके द्वारा वस्तु-तत्वको बिल्कुल स्पष्ट करनेवाला और सम्पूर्ण प्रवादियोंसे बाध्य होने के साथ साथ दया (अहिंसा), दम ( संयम ), त्याग और समाधि ( प्रशस्त ध्यान ) इन चारोंकी तत्परताको लिये हुए है। यही सब उसकी विशेषता है, और इसीलिये वह अद्वितीय है।'
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सर्वान्तवत्तद्गुण-मुख्य कल्पं सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव — युक्त्यनुशासने, श्रीसमन्तभद्रः
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'हे वीर प्रभु! आपका प्रवचनतीर्थ - शासन - सर्वान्तवान् हैसामान्य, विशेष, द्रव्य, पर्याय, विधि, निषेध, एक, अनेक, आदि अशेष धर्मोंको लिये हुए है - और वह गुण - मुख्यकी कल्पनाको साथ में लिये हुए होने से सुव्यवस्थित है - उसमें असंगतता अथवा विरोधके लिये कोई अवकाश नहीं है--जो धर्मो में परस्पर अपेक्षाको नहीं मानते उन्हें सर्वथा निरपेक्ष बतलाते हैं - उनके शासन में किसी भी धर्मका अस्तित्व नहीं बन सकता और न पदार्थ-व्यवस्था ही ठीक बैठ सकती है। अतः आपका ही यह शासन तीर्थ सर्वदुःखों का अन्त करनेवाला है, यही निरन्त हैकिसी भी मिथ्यादर्शन के द्वारा खण्डनीय नहीं है - और यही सब प्राणियोंके अभ्युदयका कारण तथा आत्मा के पूर्ण अभ्युदय
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