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सस्साधु- स्मरण - मंगलपाठ
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(विकास) का साधक ऐसा 'सर्वोदयतीर्थ' है। भावार्थ- आपका शासन अनेकान्तके प्रभावसे सकल दुर्नयों (परस्पर-निरपेक्ष नयों) अथवा मिथ्यादर्शनोंका अन्त ( निरसन) करनेवाला है और ये दुर्नय अथवा सर्वथा एकान्तवादरूप मिथ्यादर्शन ही संसार में अनेक शारीरिक तथा मानसिक दुःखरूप आपदाओंके कारण होते हैं, इसलिये इन दुर्नयरूप मिथ्यादर्शनोंका अन्त करनेवाला होने से आपका शासन समस्त आपदाओंका अन्त करनेवाला है, अर्थात् जो लोग आपके शासनतीर्थका आश्रय लेते हैं- उसे पूर्णतया अपनाते हैं - उनके मिथ्यादर्शनादि दूर होकर समस्त दुःख मिट जाते हैं । और वे अपना पूर्ण अभ्युदय (उत्कर्ष एवं विकास) सिद्ध करनेमें समर्थ हो जाते हैं।'
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कामं द्विषन्नप्युपपत्तिचक्षुः समीक्षतां ते समदृष्टिरिष्टम् । त्वयि ध्रुवं खण्डितमानशृङ्गो भवत्यभद्रोऽपि समन्तभद्रः ।।
- युक्त्यनुशासने, श्रीसमन्तभद्रः
' (हे वीर भगवन् !) आपके इष्ट शासन से भरपेट अथवा यथेष्ट द्वेष रखनेवाला मनुष्य भी यदि समदृष्टि ( मध्यस्थवृत्ति ) हुआ उपपत्तिचक्षुसे - मात्सर्य के त्यागपूर्वक युक्तिसंगत समाधानकी दृष्टिसे आपके इष्टका - शासनका - अवलोकन और परीक्षण करता है तो अवश्य ही उसका मानशृङ्ग खण्डित हो जाता हैसर्वथा एकान्तरूप मिथ्यामतका आग्रह छूट जाता है - और वह अभद्र अथवा मिध्यादृष्टि होता हुआ भी सब ओर से भद्ररूप एवं सम्यग्दृष्टि बन जाता है - अथवा यों कहिये कि आपके शासनतीर्थका उपासक और अनुयायी हो जाता है ।'
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