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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला g+FRO M -98++ ++ ++++ ++ ++ ++S++? के होनेपर संमताभाव धारण करते हैं, अपने चित्तको कलुषित ..
अथवा शत्रुतादिके भावरूप परिणत नहीं होने देते। जिन्होंने । इन्द्रियोंको जीत लिया-जो स्पर्शनादि पंचेन्द्रिय-विषयोंके वशीभूत (गुलाम ) न होकर उन्हें स्वाधीन किए हुए हैं। जिन्होंने परीषहोंको जीत लिया-जो भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, विष
कण्टक, वध-बन्धन, अलाभ और रोगादिकको परीषहों-बाधा. ओंको सम-भावसे सह चुके हैं। जिन्होंने कषायोंको जीत 2 लिया-जो क्रोध, मान, माया, लोभ तथा हास्य, शोक और कामादिकसे अभिभूत होकर कोई काम नहीं करते। जिन्होंने
राग, द्वेष और मोहपर विजय प्राप्त किया है जो राग, द्वेष, मोह. की अधीनता छोड़कर स्वाधीन बने हैं। और जिन्होंने सुख-दुःखॐ को भी जीत लिया है-सुखके उपस्थित होनेपर जो हर्ष नहीं
मनाते और न दुःखके उपस्थित होनेपर चित्तमें किसी प्रकारका उद्वेग, संक्लेश अथवा विकार ही लाते हैं। उन सभी सत्साधुओं
को मैं नमस्कार करता हूँ-उनकी वन्दना-उपासना-आराधना 3 करता हूँ; फिर वे चाहे कोई भी, कहीं भी और किसी नामसे
भी क्यों न हों।
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