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प्रस्तावना
। देव, विद्यानन्द, जिनसेन और वादिराज जैसे महान् आचार्यों , और कविनागराज जैसे भक्तहृदय विवेकी विद्वानोंने उनका खूब : ! खुलकर यशोगान किया है। प्राचार्य विद्यानन्द तो उनके गुणों* का कीर्तन करते करते अँघाए ही नहीं । ऐसा मालूम होता है कि
वे इन्द्रकी तरह सहस्रनयन बनकर समन्तभद्रकी ओर बराबर। देखते रहे हैं और तृप्त नहीं हो पाये।
ये सब संस्मरण स्मृत व्यक्तियोंके कितने ही इतिहास, प्रभाव उपकार, माहात्म्य, गुणोत्कर्ष और साहित्य-सेवादिके उल्लेखोंको लिये हुए हैं, आत्मामें एक प्रकारकी स्फूर्ति-जागृति उत्पन्न करते हैं और विशुद्धता लाते हैं। इनमें जैनधर्मके विश्वव्यापी प्रभाव तथा आत्माकी अचिन्त्य शक्तियोंका दर्शन होता है। जैनधर्मकी नीति और उसके मूलसिद्धान्तोंका इनसे कितना ही पता चलता है, पूर्वजोंका गौरव मूर्तिमान होकर सामने आ जाता है, अपने कर्तव्यका बोध होता है और आत्मविकास तथा लोकसेवाके लिये कुछ-न-कुछ करनेको जी चाहता है। और इस तरह ये
संस्मरण बहुत उपकारी तथा मङ्गलकारी हैं। हमें नित्य ही इनका १ पाठ करके अपने आत्माको पवित्र करना तथा ऊँचे उठाना चाहिये।
जिन आचार्योंके स्मरणोंका यहाँ संकलन किया गया है वे विक्रम संवत् से कोई ४७० वर्ष पहलेसे लेकर विक्रमकी ११वीं
शताब्दी तक हुए हैं। मैं उनका और उनके स्मरणकर्ताओंका । समयादिके साथ कुछ ऐतिहासिक विशेष परिचय और देना चाहता
था, परन्तु अनवकाशसे लगातार बहुत ज्यादा घिरा रहनेके कारण । मैं उसे इस समय नहीं दे सका । पुस्तकके दूसरे संस्करणके अव- सरपर उसे देनेका यत्न किया जायगा। ! वीर-सेवा-मन्दिर, सरसावा जुगलकिशोर मुख्तार !