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वचन- साहित्यका साहित्यिक परिचय
कन्नड़ साहित्य में वचन साहित्यका, शैलीकी दृष्टिसे, विषय और विस्तारकी दृष्टि से तथा उसके इतिहासकी दृष्टि से भी एक विशिष्ट और स्वतंत्र स्थान है । किसी भी साहित्यका अपना इतिहास, शैली, विषय आदि होता है । वचनसाहित्यका भी अपना पृथक् इतिहास, वैशिष्ट्यपूर्ण शैली, विषय आदि है । इस परिच्छेदमें उन सबका विचार किया जाएगा ।
वचन शब्द संस्कृतकी वच् धातुसे बना है । वच्का अर्थ है वोल, वात, कहना, तथा ग्राश्वासन भी । कन्नड़ साहित्य में चंपू काव्यका भी एक युग रहा है । ई. स० ε०० से ई०स० ११५० तक अनेक महाकाव्य चंपूशैली में लिखे गये हैं । इन चंपू काव्योंमें कहीं-कहीं काव्यात्मक गद्य विभाग भी श्राता है । इस गद्य विभागको वचन कहने की परिपाटी चली ग्रा रही थी । श्रागे जाकर वीरशैव संतोंने अपने अनुभवों की अभिव्यंजनाके लिए तथा धार्मिक प्रचार के लिए इस शैलीका प्रयोग और विकास किया। जहांतक ऐतिहासिक जानकारी है ' देवर दासिमैया' सबसे पुराने वचनकार हैं । उनके वचनोंको देखकर ऐसा लगता है कि उनके कालतक यह वचनशैली पर्याप्त विकसित हो गयी होगी । श्रागे भी बसवेश्वर यदि वचनकारोंने इस शैलीको अपनाया, इसका अमर्याद विकास किया, और अपने धर्म प्रचारमें इसका उपयोग किया । ग्राज कई वचनोंको पद्यके रूपमें अतीव सुंदरताके साथ गाया जाता है, और उस समय भी गाया जाता था ऐसी मान्यता है । किंतु साहित्य के मर्मज्ञोंने एक स्वरसे उस शैलीको गद्य ही कहा है । कन्नड़ में इस शैलीको 'वचन- गद्य' कहा जाता है । इस गद्य शैलीमें पद्यों में ग्रावश्यक लय, प्रास, तालबद्धता तथा लालित्यादि गुण भी पाये जाते हैं । सामान्यतः किसी भी भाषा के साहित्यिक इतिहासका अवलोकन किया जाय तो पद्य ही पहले पाये जाते हैं, और श्रागे जाकर गद्य । कन्नड़ भाषा भी इसका अपवाद नहीं है, किंतु वीरशैव संप्रदाय के साहित्य का स्वतंत्र अध्ययन किया जाय तो पहले गद्य प्रोर बादमें पद्यात्मकता पाई जाती है । तथा भारतीय संत साहित्यके इतिहासमें संभवत: : गद्यात्मक शैलीमें कहा गया संत साहित्य यही है । विद्वानोंकी यह मान्यता सर्वविदित ही है कि पद्य भावात्मक अभिव्यंजनाका माध्यम है और गद्य विचारात्मक अभिव्यंजनाका । पद्यों में विशिष्ट प्रकारका लालित्य, लोच, लय, माधुर्य और मोहकता होती है । पद्य स्मरण-सुलभ भी होते है । गद्य में स्मरणसुलभता नहीं होती । उन दिनों, जब इन वचनोंकी रचना हुई, मुद्रण-व्यवस्था
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