Book Title: Santoka Vachnamrut
Author(s): Rangnath Ramchandra Diwakar
Publisher: Sasta Sahitya Mandal

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Page 16
________________ विषय-प्रवेश . . . जिन वीरशैव संतोंने इस शैलीमें अपने धर्म प्रचारका कार्य प्रारम्भ किया उनकी परंपराकी प्राचीनताके विषयमें निश्चयात्मक रूपसे कुछ कहना संभव नहीं है । किंतु श० श० १०७६' के लगभग इनका स्वर्णयुग था । वीरशवोंका प्रचार तथा साहित्य इस युगमें संपूर्ण विकसित रूप में देखा जाता है अर्थात् कम-से-कम इस से सौ दो सौ वर्ष पहलेसे इसका प्रारंभ हुआ होगा, इस ओर कुछ ऐतिहासिक संकेत भी मिलते हैं। किंतु वीरशैवोंमें 'त्रिसष्टि पुरातनरु' कहकर ६३ आद्य वचनकारोंका, अर्थात् शैवसंतों का पूजन करनेकी परिपाटी है। उनके विषयमें अनेक पुराण तथा काव्य भी हैं। परंतु उनके विषयमें कुछ निश्चित रूपके ऐतिहासिक आधार नहीं मिलते। कुछ विद्वानोंका मत है कि उन पुरातनोंके पुराणोंमें आने वाले कुछ संतोंके नाम, गांवके नाम आदि तामिलके हैं । संभवतः तामिलके 'अखिरों'२ से इनकी परंपरा प्रारम्भ हुई होगी ? तामिलके अखिर, अर्थात् शैवसंतोंकी परंपरा अतिप्राचीन है। पद्मपुराण के उत्तरखंडके पहले अध्यायका ४८ वां श्लोक 'उत्पन्ना द्राविड़े साहं वृद्धि कर्णाटके गता', इस अोर संकेत करता है ? कुछ भी हो, भारतके प्राचीन इतिहास के सूत्र जगह-जगह टूटे हैं, सर्वभक्षक महाकालकी प्रलय लीलासे जो बचा है उसका संरक्षण कर रखना ही हमारे हाथमें है ! ___कन्नड़-भाषी प्रदेशकी संत परम्पराओं में दो संप्रदाय है। एक शैव अथवा वीरशैव-संत-परंपरा, दूसरी, वैष्णव-संत-परंपरा । कर्णाटक में संतों को अनुभावी कहते हैं । अनुभावी का अर्थ है 'साक्षात्कारक', अनुभव किया हुआ, जिन्होंने आत्यंतिक सत्यका-जो सदैव एकाकार एकरूप है-साक्षात्कार किया है, अथवा उस महान् साक्षात्कारका अनुभव लिया है, उनको अनुभावी कहते हैं । संत साहित्यको अनुभावी साहित्य कहने की परिपाटी भी है। तथा भक्तोंको 'शरणरु' भी कहते हैं। क्योंकि वे अपना सर्वस्व परमात्मा के चरणोंमें समर्पण करके भगवान्की शरण गये थे । इसलिए उनके साधना मार्गको शरण-मार्ग भी कहा जाता है, अर्थात् कन्नड़में शैवसंतोंको 'शिवशरणरु' और वैष्णव संतोंको 'हरि शरणरु' कहा जाता है। वैसे ही शिवशरणों ने अपने धर्म प्रचारके लिए वचनशैलीका उपयोग किया था इसलिए उनको 'वचनकार कहा जाता है और हरिशरणों को 'कीर्तनकार' क्योंकि उन्होंने अपने प्रचारके लिए कीर्तन-शैलीका उपयोग किया था। यह ग्रंथ केवल शैव संतोंके वचन-साहित्य का मुंहदेखा परिचय करानेका नम्र प्रयास है । १.ई० स० १२७५-१६ २. नायनमाररु । ३. संक्षिप्त, दर्शन मात्र से होने वाला परिचय =मुह देखा परिचय ।

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