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वचन-साहित्य परिचय
तथा सामान्य जनता जीवनको उन्नत बनानेके इस शास्त्रसे अनभिज्ञ और दूर होती गई। तभी भगवान बुद्धने लोक-भाषामें धर्मज्ञान देना प्रारंभ किया। इससे. पहले जैन-धर्म के महान् प्राचार्य महावीर स्वामीने भी यही किया । कहते हैं कि भगवान बुद्ध के पश्चात् जो धर्म-सभा बैठी थी उसमें 'धर्म' कहना चाहिए: या "धम्म" तथा "भिक्षु" कहना चाहिए या 'भिक्खु' इस विषयपर बड़ा भारी वाद-विवाद हुआ था ? इसका अर्थ इतना ही है कि धर्मज्ञान जन-भाषामें कहें. या नहीं, इस विषयमें धर्माचार्यों में बड़ा-भारी मत-भेद रहा। यह मत-भेद ज्ञाने-. श्वर महाराज के काल में भी विद्यमान था। ज्ञानेश्वर महाराजने ज्ञानेश्वरीमें एक स्थानपर आवेशमें कहा है कि संस्कृत देव-भाषा है तो क्या मराठी चोरों की भाषा है ? मराठीमें मैं ऐसे शब्दोंका चयन करूंगा कि मुक्तात्माएं भी: उसको पढ़ने और सुननेके लिए लालायित हो जाएं। अर्थात् कन्नड़ वचन-- साहित्य भगवान बुद्ध और महावीर स्वामीकी प्रारंभ की हुई क्रांतिकारी परंपराका ही परिणाम है । वचनकारोंने कन्नड़भाषा-भाषी जनतामें संस्कृतपंडितों के आध्यात्मिक साम्राज्यवादका विरोध करके आध्यात्मिक अथवा . धार्मिक. जनतंत्रका निर्माण किया। इस दृष्टिसे वचन-साहित्यका एक अपना वैशिष्ट्य है। __वैसे तो जैनोंने ही कन्नड़ भाषा में धार्मिक साहित्यकी रचना का प्रारंभ किया था । कन्नड़ भाषा के महाकवि पंपने स्पष्टरूपसे यह घोषणा की कि 'विश्व में जिनागम प्रकाशनेके लिए' साहित्य-निर्माण कर रहा हूँ। उनके युग में जैन धर्म पर अनेकानेक ग्रंथ लिखे गये। तत्पश्चात् वीरशैव संतोंने अपने धर्म प्रचारके लिए उसी परंपरा का विकास किया। किंतु जैनोंने, जो अधिकतर उत्तरसे ही आये थे, अपनी ग्रंथ रचनामें संस्कृत भाषा और साहित्यका अंधानुकरण किया। उनके साहित्यके छन्द, शब्द-संपत्ति, अलंकार, बड़े-बड़े जटिल सामासिक पद आदि सव संस्कृतके हैं। केवल प्रत्यय, अव्यय, क्रियापदों का रूप, और सर्वनाम मात्र कन्नड़ हैं । उन्होंने कन्नड़ सरस्वतीपर संस्कृत का परिधान चढ़ाया, या संस्कृत सरस्वतीपर कन्नड़ परिधान चढ़ाया, यह कहना कठिन है । इसलिए यद्यपि विद्वानोंने उस कालके कवियोंको कविरनों की उपाधि दी, तथापि उनका साहित्य जन-सामान्य में लोक प्रिय नहीं हो सका । उस के वाद वीरशैव संत और साहित्यिकोंने लोक-भाषा में, उन्हीं देशी छंदोंमें, लोक शैली में साहित्य सृजन किया । वह लोकशिक्षा का माध्यम वना और जैन राजाओं के विरोध में भी हजारों-लाखों लोगोंने शैव दीक्षा ली ! इस समयका साहित्य एक प्रकारसे लोक-साहित्य था । लोकशिक्षा का वह सुन्दर माध्यम था।